- Arjun Mehar
जब तक जनता अपनी शक्ति का इस्तेमाल ठीक तरह से नहीं करेगी, तब तक विकास आते रहेंगे और यूं जाते रहेंगे
Updated: Jul 15, 2020

कुछ लोग जाे हैदराबाद एनकाउंटर पर पुलिस को सलामी दे रहे थे, वो आज मातम मना रहे हैं. आज वो कोर्ट पर ताला लगा देने की बात कह रहे हैं. लेकिन हैदराबाद एनकाउंटर पर बेहद ख़ुश थे. ऐसी बातें करने वालों में कुछ मेरे गांव के लोग भी बरामद हुए हैं. इसके पीछे की मंशा समझती जा सकती है. इतनी भी दुरूह नहीं. वैसे ऐसे लोगों की बात ही क्या करें. जैसे हैं, वैसे हैं. बस दया करें.
हम लोकतांत्रिक मुल्क़ के हिस्से हैं. हमें इसकी संस्थाओं से न्याय की अपेक्षा रखनी चाहिए न कि बदले की. यदि संस्थाएं ही ऑन द स्पोट बदले की कार्रवाही करने लगी तो अपराधियों में और पुलिस में क्या अंतर रह जाएगा?
अब इस तर्क से एनकाउंटर का विरोध होता है तो इसका अर्थ यह नहीं कि अपराधी का पक्ष लिया जा रहा है या उसके प्रति कोई सहानुभूति है. नहीं. ऐसा कुछ नहीं. बस मांग यह है कि सिस्टम को सुधारा जाए. न्यायिक प्रक्रियाओं की स्थिति को बहाल किया जाए. ऐसे अपराधी कैसे वर्षों भय का साम्राज्य चलाते रहते हैं? किसकी शह रहती है? राजनीतिक पार्टियों एवं पुलिस महक़मों से कितना समर्थन मिलता है? इन अहम सवालों पर ग़ौर करना चाहिए.
विकास दूबे का तो एनकाउंटर हो गया. लेकिन हम सब ने अनेकों विकास दूबे जैसे लोगों को लोकसभाओं एवं विधानसभाओं में भेज रखा है. उनका क्या? उनको शक्ति दरअसल हम ही देते हैं. उनकी शक्ति जनता में अंर्तनिहित होती है. वोट से पहले क्या हम उनके आपराधिक रिकॉर्ड देखते हैं? नहीं. यदि ऐसा करते तो आज प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और अनेक सूबों के मुख्यमंत्री कोई और ही होते!
विकास के एनकाउंटर के साथ ही लगभग वो तमाम राज़ भी उसके साथ दफ़्न हो गए जो कई बड़ी मछलियों को फंसा सकते थे. ये तो केवल प्यादे होते हैं. डोर कहीं ओर होती है. प्यादों को किनारे लगा दो. सफ़ेदपोश पर एक छींट भी नहीं. यही सच है.
अभी भी यदि नीयत हो तो बड़ी मछलियों पर शिकंजा कसा जा सकता है. विकास दूबे की काॅल-डिटेल्ज़, ईमेल्स, व्हाट्सएप्प और बैंक ट्रांजेक्शन्स से बहुत कुछ पकड़ा जा सकता है. लेकिन यही मंशा होती तो यह नहीं होता.
जब तक जनता अपनी शक्ति का इस्तेमाल ठीक तरह से नहीं करेगी, तब तक विकास आते रहेंगे और यूं जाते रहेंगे. कुछ नहीं बदलेगा. ये ऑन द स्पोट फैसलों पर इतराने से बेहतर है कुछ इत्मीनान से सोचें. कहीं हम लोहे के दस्ताने मज़बूत तो नहीं कर रहे?
(यह लेख "कुमार श्याम" ने लिखा है. कुमार श्याम एक स्वतंत्र पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता,लेखक और Youtuber है.)

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